अब कहीं घूमो न हिरनों

अब कहीं घूमो न हिरनों 

गीत ✍️ उपमेंद्र सक्सेना एडवोकेट 
 
अब कहीं घूमो न हिरनों न्याय की उम्मीद में तुम
भेड़ियों के हाथ में सारी व्यवस्था आ गई है।
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सभ्यता के जंगलों में बात दहशत की कबूली 
सूकरों के झुंड में फँस गीदड़ों की श्वास फूली
सत्य- निष्ठा बन अनैतिक आस्था की नीति भूली 
इसलिए संवेदना फाँसी लगाकर आज झूली
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भूलकर बीता जमाना बस हिलाते ही रहो दुम
जी हुजूरी खूब सबको अब अचानक भा गई है।
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खेलकर मासूमियत से मानते उसको खिलौना 
कर रहे वातावरण वे ही यहाँ इतना घिनौना
छल- कपट के सामने अब प्रेम का सिद्धांत बौना
लग रहा काँटो भरा है कामनाओं का बिछौना
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बेबसी ने कर दिया जिनको यहाँ पर आज गुमसुम
वे करें किसका भरोसा जब निराशा छा गई है।
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लोमड़ी की बात पर है दोषियों को आज छोड़ा 
ठीकरा निर्दोष के सिर पर किसी ने खूब फोड़ा
जो घटी घटना उसे फिर जाँच में तोड़ा- मरोड़ा
दौड़ता केवल रहा है कागजों में एक घोड़ा 
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तुम हुए बदहाल बोलो किस तरह आए तबस्सुम 
ढोंग रच सद्भावना जब जुल्म इतने ढा गई है।
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रचयिता✍️ उपमेंद्र सक्सेना एडवोकेट
 'कुमुद- निवास'
 बरेली (उत्तर प्रदेश)
 मोबा.- 9837944187

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1 Comments

Babita patel

24-Jun-2024 07:07 AM

V nice

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